Gunjan Kamal

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अधूरा स्वप्न

मातृत्व सुख एक ऐसा सुख है जिसे पाकर हर औरत को पूर्णता का अनुभव होने लगता है। यह सच भी है क्योंकि पालनहारो की गिनती में ईश्वर के बाद एक माॅं को ही वह दर्जा प्राप्त हैं। भगवान श्री कृष्ण ने भी  माॅं का स्थान ईश्वर  के स्थान से अग्रणी बताया हैं जिसे हमारे समाज ने भी सर्वोपरि ही माना हैं लेकिन जब बात माॅं बनने की उम्र की आती है तो सबकी सोच भिन्न - भिन्न ही होती है।

चौदह साल! जी हां, मात्र चौदह साल की उम्र, एक ऐसी उम्र जिसमें भविष्य संबंधित बातें स्वप्न के रूप में दिलोदिमाग और ऑंखों में ऐसे बसी होती है जैसे दिल में धड़कन लेकिन नीरा की ऑंखो को स्वयं के लिए कुछ भी देखने की इजाजत बिल्कुल भी नहीं थी। तुम पाॅंच भाई - बहनों की जिम्मेदारी मुझ जैसे गरीब से निभाई नहीं जाती‌। अक्सर यें बातें नीरा के साथ - साथ उसके चारों भाई - बहन सुनते। बेचारी नीरा! जब मात्र तेरह साल की उम्र में ब्याह दी गई उसे यह तक मालूम नहीं था कि पति - पत्नी का रिश्ता क्या होता है?

मालूम भी कैसे होता? पिता तो थे उसके लेकिन माॅं तो एकलौते छोटे भाई को जन्म देने के कुछ घंटे बाद ही स्वर्ग -  सिधार गई थी। हां! नीरा के साथ इतना तो अवश्य था कि कम उम्र में ही एक बेहतर माॅं के सभी गुण अपने से छोटे बहनों और भाई को संभालते हुए उसमें आ गए थे। जहां तक नीरा की शादी की बात थी वह भी एक समझौता ही थी‌। जहां एक ओर उसके पिता को अपनी दो छोटी बेटियों और एक बेटा को संभालने वाली सहचरी मिलने की उम्मीद थी वहीं पर शादी के  कुछ ही सालों में विधुर हो‌ चुके व्यक्ति को एक ऐसी संगिनी की जरूरत थी जो उसके जीवन को फिर से संवार सकें।

समझौता एक ऐसा शब्द जिसमें दो विपरीत व्यक्ति भी स्वार्थ लाभ में जुड़ ही जाते हैं। दोनों के बीच हुए समझौते में नीरा के पिता और उसके पति दोनों का ही स्वार्थ निहित था। निहित स्वार्थ से परे कोई  जीवन जी रहा था तो वह थी नीरा।

कम उम्र में माॅं बनी नीरा ने अपने बच्चें के प्री मैच्योर डिलीवरी के कारण उसे खो दिया जिसका उसकी शारीरिक स्थिति और मानसिकता  पर भी असर पड़ा‌। ग्रामीण परिवेश में पली - बढ़ी और अपनी जिंदगी गुजार रही नीरा के जीवन में शिक्षा की ज्योत उसके अपने पति ने ही जलाई। कम पढ़े - लिखे लोग भी अपने विवेक का इस्तेमाल कर समाज की तरक्की के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले गिनें - चुनें  समाज सेवकों की बातें मानते हैं और उस पथ पर निकलते हैं तो सफलता और प्रसिद्धि उन्हें अवश्य मिलती है।

बचपन में प्राइमरी तक अपने गाॅंव के विद्यालय में ही पढ़ी नीरा अपने पति का साथ पाकर एक कोहिनूर हीरा की तरह भविष्य में अपनी रोशनी बिखेरने के लिए तैयार हो रही थी। अपनी मेहनत - लगन और पति के साथ के बिना  डाॅक्टर बनने की राह में आने वाली तमाम मुश्किलों का सामना वह अकेले कर ही नहीं सकती थी।

अपनी कोख के उजड़ने का दर्द झेल चुकी नीरा ने तमाम मुश्किलों को हराकर डाॅक्टर बनने का संकल्प इसलिए लिया क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उसके साथ जो  हुआ वह किसी और लड़की की परछाईं भी बनें। कम उम्र में लड़कियों की शादी के खिलाफ तो वह थी ही साथ ही वह चाहती थी कि इस दुनियां की हर स्त्री को मातृत्व सुख  की प्राप्ति हो।

अपने जीवन में निश्चित कर लिए लक्ष्य को अपना जीवन पर्यन्त उद्देश्य मानकर समाज की कुरीतियों का समर्थन करने वाली सोच को बदलने की दिशा में उसने अपने कदम बढ़ा दिए थे। वह उसमें सफल भी हो जाती
लेकिन......

सिसकियों का शोर ऑडिटोरियम में गूंजकर एक ऐसे‌ अनदेखे  दर्द को बयां कर रही थी जिसके तार कहीं ना कहीं पर नीरा से जुड़े थे।

डाॅक्टर नीरा अपनी मंजिल तक पहुंचकर अपने कर्तव्य को पूरी निष्ठा और ईमानदारी से निभा भी रही थी लेकिन तभी विश्व में आई वैश्विक महामारी ने उसकी जिम्मेदारी  भरें पैरों को रोकने का असफल प्रयास किया। असफल इसलिए क्योंकि मीरा ने अपने छः माह की बेटी के लिए भी अपने कर्तव्यों से मुॅंह नहीं मोड़ा।

तमाम एहतियातों के बाद भी यह ऐसी जानलेवा महामारी पूरे देश में फैली थी जो सिर्फ विनाश करने ही धरती पर आई थी और जब यह गई तब चारों तरफ लाशों का तांडव दिखाकर, अपनों को अपनों से बिछड़ा कर, दर्द वों भी जिंदगी भर का देकर चली गई।

इस महामारी ने एक ऐसी छः माह की बच्ची को उसकी माॅं से हमेशा के लिए जुदा कर दिया था जिसका सर्वप्रथम कर्तव्य ही मरीजों की हरसंभव सेवा करना था। नीरा के रूप में इस देश ने और इस समाज ने एक ऐसे डाॅक्टर को खो दिया जो सर्वप्रथम निजी स्वार्थ हित से परे हटकर सिर्फ अन्य लोगों के बारे में ही सोचती थी।  उस परिवार और खासकर उस छः माह की बच्ची ने  अपनी उस माॅं को खो दिया जिसका प्यार उसे कभी मिल ही नहीं पाया।

एक बेटी के रूप में यदि इन सारी बातों को सोचती हूॅं तो कोई भी बेटी अपनी माॅं से इसके लिए नफरत ही कर सकती है लेकिन यदि एक डॉक्टर होने के नाते जब मैं यह सोचती हूॅं तो मुझे अपनी माॅं पर गर्व होता है। वह संतान  हीं होती है जो अपने माता-पिता के अधूरे सपने को पूरा करती है। माॅं की डायरी में मैंने पढ़ा था कि उनका स्वप्न  एक ऐसा अस्पताल बनाना था जिसमें लोगों को सारी डाॅक्टरी  सुविधाएं मिले, कोई भी वहाॅं  से नाउम्मीद होकर ना जाए। उम्मीद का दामन उसके साथ हमेशा ही रहें। अब जब अपनी माॅं की तरह ही मैं भी डॉक्टर बन चुकी हूॅं तो मेरा भी यही स्वप्न है कि मैं अपनी माॅं के  उस सपने को जो अधूरा रह गया था उसे पूरा करूं।

जिद्दी माॅं  की जिद्दी बेटी हूॅं। अपनी यह जिद तो पूरी करके ही रहूंगी । इस जिद  को सिवाय मौत के मुझसे कोई नहीं छीन सकता लेकिन एक बात और है मौत  को भी इसे मुझसे जुदा करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

गीली ऑंखों और भर्राए  शब्दों में कही गई यह बातें वहां पर मौजूद सभी लोगों के दिल को छूती हुई उनकी ऑंखों तक पहुंचकर उनके दिल का हाल ऑंसूओं के रूप में बयां कर रही थी।

डॉक्टर स्वाति मिश्रा हम सब आप की इस जिद में आपके साथ हैं। भीड़ से आई एक आवाज ने उस जैसी और भी आवाज को बुलंद कर दिया जिसे देखकर नीरा की बेटी डॉक्टर स्वाति मिश्रा की ऑंखों में खुशी के ऑंसू छलक पड़े और उन्हीं ऑंसू भरी ऑंखों से ऊपर की तरफ देखती हुई उसने मन ही मन में अपनी माॅं को याद किया और कहा  नीरा माॅं! आपका अधूरा स्वप्न हम सब मिलकर
पूरा करेंगे सिर्फ आप अपना आशीर्वाद हम पर बनाए रखना।

                                        धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻

गुॅंजन कमल 💗💞💓

०६/०७/२०२२


# डाॅक्टर विशेषांक


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5 Comments

Seema Priyadarshini sahay

08-Jul-2022 09:50 PM

बहुत ही खूबसूरत

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Zakirhusain Abbas Chougule

07-Jul-2022 12:23 AM

Very nice

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Mohammed urooj khan

06-Jul-2022 09:10 PM

बेहतरीन कहानी 👌👌👌

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